समय हूँ मैं!
शाम की हलकी बरसात में,
मैं बैठा बहार खिड़की से गुजरते हुए समय को देख लिया,
तो रोक लिया।
हड़बड़ी में हूँ, भाव खाते हुए
मुझे हालात का मारा हुआ, बताते हुए
एक कदम आगे जाने को बढ़ाये
वो कह रहा था मैं ठहरता कहा हूँ।
मुझे फर्क नहीं पड़ता किसी से की कोई भूखा है, दुखी है, रोगी है
आशावान है की सुख रास्ते में है, सुखी है
मैं कभी नहीं रुका,
किसी के लिए भी - ना बालपन, ना बचपन, ना लड़कपन
किसी को भी टिकने ना दिया - ना नादानी, ना जवानी, ना मर्दानगी
सुस्त और आलसी हो जाता हूँ, देखकर
लोगों को - शोकलिप्त, मरणासन पर पड़े, मन के गढ़े,
मैं ठहर कर भी क्या देखूं
ये नफरतों का फैलाओ, प्रेम में दूरियों का बहाओ,
चिंतित मन, ख़ुदकुशी की ओर जाता अकेलापन।
मुझे ना रोको गुजर जाने दो, एक वक़्त का साथी समझ लो, बस
गुजर रहा हूँ गुजर जाऊंगा अच्छे समय में अच्छा, बुरे समय में बुरा हूँ
ख़ुशी में हंसाया होकर बेशर्म, दुःख में आँखों को कर गया नम
सबके लिए मैं यादगार बन जाऊं तो अच्छा है,
समय हूँ मैं, बिना ठहरे गुजर जाऊं तो अच्छा है।
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यह कविता उमेश ठाकुर जी (mr.umeshthakur89@gmail.com) द्वारा लिखी गयी है। कविता आपको कैसी लगी हमे निचे कमेंट कर के बताये।
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