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बुढ़ापे में जवानी में

बुढ़ापे में जवानी में


 मेरे दिल की कहानी में यें साँसों की रवानी में

हो नक़्श-ए-इश्क़ तेरा बस बुढ़ापे में जवानी में

मैं तुझको क्या बताऊँ जान-ए- मन कोई नहीं तुझसा

हज़ारों हैं तेरे आशिक़ मग़र कोई नहीं मुझसा

तुझें जो ज़िस्म सा देखें हवस में ख़ाक हो जाए

तेरी रूह-ओ-रिफ़ाक़त से सभी दिल पाक हो जाए

असीर-ए- दिल मैं तेरा हूँ रिहा मुझको नहीं होना

भले खुद को ना पाऊँ पर मग़र तुझको नहीं खोना

मेरे प्यारे मेरे दिलबर सुनो बातें मेरे दिल की

तुझें पाया तो सब पाया ना हसरत औऱ हासिल की

ये हुस्न-ए-ताम तू जो हैं तुझें ना हैं ख़बर कोई

ख़ुमार-ए-इश्क़ तेरे में दवा की ना असर कोई

इल्लाहि की बनावट तू हैं उम्दा औऱ तारीख़ी

नहीं देखी हैं अब तक तो ज़मानों से ये बारीक़ी

तुझें देखूँ मैं भर आँखें या तुझमे दिल दफ़न कर दूँ

मैं कर लूँ बेवाफ़ाई तुझसे तो ये सिर कलम कर दूँ

तू आ के पास मेरे बैठ तुझको देखना हैं अब

मेरी इस बेकरारी को तुझें भी देखना हैं अब

मेरी इस ज़िंदगानी में मेरी उस ज़िंदगानी में

हो नक़्श-ए-इश्क़ तेरा बस बुढ़ापे में जवानी में


©Pratyush Pathak "Shams"

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आदम ऐसे कहाँ होते

आदम ऐसे कहाँ होते


 कंक्रीट के निर्जीव वन में

जानवर ठहरे भवन में

प्राणवायु लुप्त होती

और सभी अस्तित्व खोते

आदम ऐसे कहाँ होते


दृश्य दो में देख लो तुम

एक अलग संसार है

वन में जीवन फल रहा

बस वृक्ष ही आधार है


बीनते सूखी लकड़ियां

और फलों को तोड़कर

जी रहे हैं सब खुशी से

मुख्य धारा छोड़कर


सब सरलता से चले 

ऐसी यहां जीवन कहाँ

आते तब कुछ दूरदर्शी

मुख्य धारा से वहां 


अंदर अपने कपट पाले

मन में उनके ज़हर बोते

आदम ऐसे कहाँ होते


वहां पर धरती के नीचे

स्वर्ण का भंडार निकला

मुख्य धारा के मनुष्यों

के हृदय से ज्वार निकला


हर घड़ी कोशिश यही की

गांव विस्थापित करो 

भले कोई मर भी जाये

अपना तुम बस हित करो


कुचल डाला हरित वन को 

रह गए सब जीव सोते

आदम ऐसे कहाँ होते


कालचक्र ये जो है

कमाल अमरोही हुआ

गांव के मुखिया का छोरा

भोला विद्रोही हुआ है


एकजुट कर लोग को फिर

उस विनाश के बाद में 

चल दिया वन को बचाने

भोला दहके आग में


गांव के सारे बचे लोगों 

में दिल मे आग थी

भोला अकेला नहीं था

गजरानी उनके साथ थी


भीषण हुआ था द्वंद वो

लकड़ियों और कंक्रीट में

पर नहीं था शेष कुछ भी

हार में और जीत में


युद्ध मे कंक्रीट फिर 

लकड़ियों पर भारी पड़ा

और बेचारे भोला के 

हाथों पे फिर आरी पड़ा


था रुआंसा वो खड़ा

मच गया हाहाकार था

अगले क्षण कानो में उसके

गजरानी का हुंकार था


कुछ नहीं हां कुछ नहीं

हां कुछ नहीं अब सब गया

और वो कपटी गजा के

पैरों तले था दब गया


वन था उनका बच गया 

ये देवी की सौगात थी

लकड़ी जीती कंक्रीट से 

ये एकता की बात थी


कटा हाथ थामे हाथ में

वो खड़ा सबके साथ में

उस आग में रोते रोते

कहे

आदम ऐसे कहाँ होते

आदम ऐसे कहाँ होते।

ⒸAyush Raj Tiwari "Ayushman"

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